Wednesday, August 19, 2015

नागपंचमी और गुड़िया पीटने की प्रथा

नागपंचमी का त्योहार मनाने का ढंग कुछ अनूठा है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को इस त्योहार पर राज्यभर में गुड़िया को पीटने की अनोखी परम्परा निभायी जाती है। नागपंचमी को महिलाएं घर के पुराने कपड़ों से गुड़िया बनाकर चौराहे पर डालती हैं और बच्चे उन्हें कोड़ो और डंडों से पीटकर खुश होते हैं। इस परंपरा की शुरुआत के बारे में कई लोककथाएं प्रचलित हैं।

राजा तक्षक की कहानी
कहते हैं- तक्षक नाग के काटने से राजा परीक्षित की मौत हो गई थी। समय बीतने पर तक्षक की चौथी पीढ़ी की कन्या राजा परीक्षित की चौथी पीढ़ी में ब्याही गई। उस कन्या ने ससुराल में एक महिला को यह रहस्य बताकर उससे इस बारे में किसी को भी नहीं बताने के लिए कहा लेकिन उस महिला ने दूसरी महिला को यह बात बता दी और उसने भी उससे यह राज किसी से नहीं बताने के लिए कहा। लेकिन धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई।

तक्षक के तत्कालीन राजा ने इस रहस्य को उजागर करने पर नगर की सभी लड़कियों को चौराहे पर इकट्ठा करके कोड़ों से पिटवा कर मरवा दिया। वह इस बात से क्रुद्ध हो गया था कि औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती। तभी से नागपंचमी पर गुड़िया को पीटने की परंपरा शुरू हुई।

भाई-बहन की कहानी
वहीं एक दूसरी कथा के मुताबिक, किसी नगर में एक भाई अपनी बहन के साथ रहता था। भाई, भगवान भोलेनाथ का भक्त था। वह प्रतिदिन भगवान् भोलेनाथ के मंदिर जाता था जहां उसे एक नागदेवता के दर्शन होते थे। वह लड़का रोजाना उस नाग को दूध पिलाने लगा। धीरे-धीर दोनों में प्रेम बढ़ने लगा और लड़के को देखते ही सांप अपनी मणि छोड़कर उसके पैरों में लिपट जाता था।

एक बार सावन का महीना था। बहन, भाई के साथ मंदिर जाने के लिए तैयार हुई। वहां रोज की तरह सांप अपनी मणि छोड़कर भाई के पैरों मे लिपट गया। बहन को लगा कि सांप भाई को डस रहा है। इस पर उसने डलिया सांप पर दे मारी और उसे पीट-पीटकर मार डाला। भाई ने जब अपनी बहन को पुरी बात बताई तो वह रोने लगी और पश्चाताप करने लगी। लोगों ने कहा कि सांप देवता का रूप होते हैं इसलिए बहन को दंड जरूरी है। लेकिन बहन ने भाई की जान बचाने के लिए सांप को मारा था, इसलिए बहन के रूप में यानी गुड़िया को हर काल में दंड भुगतना पड़ेगा। तभी से गुड़िया को पीटने की पंरपरा निभायी जाने लगी।

Wednesday, August 27, 2014

मिर्च से जलन क्यों होती है ?????

हमारे शरीर मे एक तंत्रिका तंत्र होता है जो मस्तिष्क को विभिन्न संकेत भेजता है, जैसे स्पर्श, तापमान, स्वाद,दर्द की अनुभूति इत्यादि। जब आप किसी वस्तु को छूते है, उस समय तापमान महसूस करने वाली कोशीकायें मस्तिष्क को संदेश भेजती है कि यह वस्तु उष्ण है या शीतल।
तंत्रिका तंत्र की कोशीकायें कुछ रसायनो का प्रभाव भी महसूस करती है। उनके प्रभाव से भी वे मस्तिष्क को संदेश भेजती है।
मिर्च मे एक रसायन होता है, कैपसाइसीन (capsaicin)।
इस रसायन के हमारे शरीर के तंत्रिका तंत्र के संपर्क मे आने पर प्रभावित अंग की तंत्रिका कोशीकाये मस्तिष्क को जलन और उष्णता के संकेत भेजना प्रारंभ करती है।
मिर्च की जलन से बचने के लिये प्रभावित अंग के तंत्रिका तंत्र के संपर्क मे कोई दूसरा रसायन आना चाहिये, जिससे तंत्रिकाये मस्तिष्क को अन्य संकेत भेज सके। यह दूसरा रसायन जल, दूध, बर्फ या मिठाई भी हो सकती है।
ध्यान रहे हमारी जिव्हा मे तंत्रिका कोशीकाये ज्यादा घनत्व मे होती है।...........साभार (विज्ञानं विश्व )

Monday, August 25, 2014

क्वार्क {quark} मूलभूत कण में से एक

क्वार्क {quark} मूलभूत कण में से एक है, जिससे पदार्थ बनता है। प्रोटॉन व न्यूट्रॉन इन्ही मूलभूत कणो से बने होते है। क्वार्क को उनके फ्लेवर से जाना जाता है और यह छ्: प्रकार के होते हैं:-अप क्वार्क, चार्म क्वार्क, टाप क्वार्क, डाउन क्वार्क, स्ट्रेन्ज क्वार्क और बाटम क्वार्क। इनके प्रतिक चिन्ह क्रमश: u, c, t, d, s और b है। पहले तीन प्रकार के क्वार्क अप-टाइप क्वार्क तथा शेष डाउन-टाइप क्वार्क कहलाते हैं। अप और डाउन क्वार्क का द्रव्यमान सभी क्वार्को में सबसे कम होता है। भारी द्रव्यमान वाले क्वार्क, द्रव्यमान के क्षय के कारण तेजी से अप व डाउन क्वार्क में परिवर्तित होते हैं, क्योंकि अप व डाउन क्वार्क साधारणतया स्थायी होते हैं और ब्रह्मान्ड में सबसे अधिक पाये जाते हैं। क्वार्क का प्रतिकण {anti partical} एन्टी-क्वार्क कहलाता है,प्रत्येक प्रकार के क्वार्क के प्रतिकण होते है,जो क्रमश: एन्टी-अप क्वार्क---- एन्टी-बाटम क्वार्क कहलाते है।

क्वार्क अकेले नहीं पाये जाते,वरन हमेंशा समूह में पाये जाते है।क्वार्क से मिलकर बनने वाले अवयव हेड्रॉन {hadrons} कहलाते है। तीन क्वार्क के संयोंजन से बेर्यॉन {baryons},तीन एन्टी-क्वार्क के संयोजन से एन्टी-बेर्यॉन तथा एक क्वार्क एवं एक एन्टी-क्वार्क के संयोजन से मेसॉन {mesons} बनते है। दो अप क्वार्क एवं एक डाउन क्वार्क के संयोजन से प्रोटॉन तथा एक अप क्वार्क एवं दो डाउन क्वार्क के संयोजन से न्यूट्रॉन बनते है। बेर्यान,मेसान,प्रोटान,न्यूट्रान, न्यूक्लिआन {एक प्रोटान + एक न्यूट्रॉन} और परमाणु नभिक,यह सभी हेड्रॉन कहलाते है क्योंकि सभी क्वार्क से मिलकर बने होते है। क्वार्क का सांख्यिकीय व्यवहार फर्मिऑन होता है।

क्वार्क में कई प्रकार के गुण होते है,जैसे विद्युत आवेश ,कलर चार्ज {color charge},भ्रमि या स्पिन {spin} और द्रव्यमान । प्रतिकण में भी यह सभी गुण पाये जाते है,परंतु विपरीत होते है।
अप-टाइप क्वार्क का विद्युत आवेश +२/३ और डाउन-टाइप क्वार्क का -१/३ होता है। इनके प्रतिकण {anti partical} का आवेश विपरीत क्रमश: -२/३ और +१/३ होता है। क्वार्क के संयोजन से बनने वाले कणो का विद्युत आवेश,उसमें पाये जाने वाले क्वार्को के कुल विद्युत आवेशो के योग के बराबर होता है। जैसे:- प्रोटान का विद्युत आवेश, दो अप-क्वार्क और एक डाउन-क्वार्क् के विद्युत आवेशो के कुल योग के बराबर अर्थात १ होता है। इसी तरह न्युट्रान का विद्युत आवेश शून्य होता है।

क्वार्क में तीन तरह के कलर चार्ज पाये जाते है- हरा, लाल, नीला। एन्टी क्वार्क में तीन एन्टी कलर चार्ज पाये जाते है-मेजेन्टा, स्यान और पीला। कलर चार्ज केवल क्वार्क और ग्लुऑन में पाया जाता है।

साँपो से समन्धित कुछ रोचक तथ्य


Saturday, August 23, 2014

रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता - नागार्जुन



रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।

रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता - नागार्जुन .

सनातन कालीन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में रसायन एवं धातु कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में नागार्जुन का नाम अमर है... ये महान गुणों के धनी रसायनविज्ञ इतने प्रतिभाशाली थे की इन्होने विभिन्न धातुओं को सोने (Gold) में बदलने की विधि का वर्णन किया था. एवं इसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था.

इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् ९३१ में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था, नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।

नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ दो रूपों में उपलब्ध है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं। नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि वर्णित है। नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस
(२) उपरस
(३) सामान्यरस
(४) रत्न
(५) धातु
(६) विष
(७) क्षार
(८) अम्ल
(९) लवण
(१०) भस्म।

महारस इतने है -

(१) अभ्रं
(२) वैक्रान्त
(३) भाषिक
(४) विमला
(५) शिलाजतु
(६) सास्यक
(७)चपला
(८) रसक

उपरस :-

(१) गंधक
(२) गैरिक
(३) काशिस
(४) सुवरि
(५) लालक
(६) मन: शिला
(७) अंजन
(८) कंकुष्ठ

सामान्य रस-

(१) कोयिला
(२) गौरीपाषाण
(३) नवसार
(४) वराटक
(५) अग्निजार
(६) लाजवर्त
(७) गिरि सिंदूर
(८) हिंगुल
(९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

रस रत्नाकर अध्याय ९ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-

(१) दोल यंत्र
(२) स्वेदनी यंत्र
(३) पाटन यंत्र
(४) अधस्पदन यंत्र
(५) ढेकी यंत्र
(६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र
(८) विद्याधर यंत्र
(९) धूप यंत्र
(१०) कोष्ठि यंत्र
(११) कच्छप यंत्र
(१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥ - (रसरत्नाकार-३-७-८९-१०)

अर्थात्‌ - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि, रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं। इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं।

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया। हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया। उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब (Acid) बनाने का वर्णन है।

नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक पुस्तक भी लिखी। इसमें दवाइयां बनाने के तरीके दिये गये हैं। आयुर्वेद की एक पुस्तक `आरोग्यमजरी' भी लिखी।

तो देखा आपने सनातनी भारत में अन्य विज्ञानों के साथ साथ रसायन विज्ञान भी अपनी उत्कृष्ट अवस्था में था.

अगर मै ये कहूं की समस्त आधारभूत विज्ञान सनातन आर्यावर्त की देन है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

भारतीय के गौरवशाली गणितज्ञ

ईसा पूर्व
याज्ञवल्क्य, शतपथ ब्राह्मण के एक ऋषि और ज्योतिषविद्
लगध – वेदाङ्ग ज्योतिष के रचयिता। 1350 ई पू
बौधायन, शुल्ब सूत्र 800 ई. पू
मानव, शुल्ब सूत्र 750 ई पू
आपस्तम्ब, शुल्ब सूत्र 700 ई पू
अक्षपाद गोतम, न्याय सूत्र 550 ई पू
कात्यायन, शुल्ब सूत्र 400 ई पू
पाणिनि, 400 ई पू, अष्टाध्यायी
पिङ्गल, 400 ई पू छन्दशास्त्र
भरत मुनि, 400 ई पू, अलङ्कार शास्त्र, सङ्गीत
ईस्वी सन् 1-1000
आर्यभट – 476-550, ज्योतिष
यातिवृषभ (लगभग 500-570) – दूरी तथा समय मापने की इकाइयों की समीक्षा
वराहमिहिर, ज्योतिष
भास्कर प्रथम, 620, ज्योतिष
ब्रह्मगुप्त – ज्योतिष
मतङ्ग मुनि – सङ्गीत
विरहङ्क (750) -
श्रीधराचार्य 750
लल्ल, 720-790, ज्योतिष
गोविन्दस्वामिन् (850)
वीरसेन
महावीर (850)
जयदेव (850)
पृथूदक, 850
हलायुध, 850
आर्यभट २, 920-1000, ज्योतिष
वटेश्वर (930)
मञ्जुल, 930
ईस्वी सन् 1000-1800
ब्रह्मदेव, 1060-1130
श्रीपति, 1019-1066
गोपाल -
हेमचन्द्र -
भास्कर द्वितीय – ज्योतिष
गङ्गेश उपाध्याय, 1250, नव्य न्याय
पक्षधर, नव्य न्याय
शंकर मिश्र, नव्य न्याय
माधव – ज्योतिष
परमेश्वर (1360-1455), ज्योतिष
नीलकण्ठ सोमयाजि,1444-15 45 – ज्योतिष
महेन्द्र सूरी (1450)
शङ्कर वारियर (c. 1530)
वासुदेव सर्वभौम, 1450-1525, नव्य न्याय
रघुनाथ शिरोमणि, (1475-1550), नव्य न्याय
ज्येष्ठदेव , 1500-1610, ज्योतिष
अच्युत पिशराटि, 1550-1621,
मथुरानाथ तर्कवागीश, c. 1575, नव्य न्याय
जगदीश तर्कालङ्कार, c. 1625, नव्य न्याय
गदाधर भट्टाचार्य, c. 1650, नव्य न्याय
मुनीश्वर (1650)
कमलाकर (1657)
जगन्नाथ सम्राट (1730)
ईस्वी सन् 19वीं सदी
श्रीनिवास रामानुजन् (1887-1920)
ए ए कृष्णस्वामी अयङ्गार (1892-1953)
प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस (1893-1972
सत्येन्द्र नाथ बसु (1894-1974)
सञ्जीव शाह (1803- 1896)
रघुनाथ पुरुषोत्तम परञ्जपे
ईस्वी सन् 20वीं सदी
राज चन्द्र बसु (1901-1987)
सर्वदमन चावला (1907-1995)
सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर (1910-1995)
हरीश चन्द्र (1923-1983)
कलियमपुडि राधाकृष्ण राव (1920-)
श्रीराम शंकर अभयङ्कर (1930-)
वशिष्ठ नारायण सिंह
डा.सुरेश चन्द्र मिश्रा (1950-)
डा.रामेन्द्र सिंह भदौरिया (1957-)
मञ्जुल भार्गव (1975 – )
आनन्द किशोर (1991 – )
भारतीय गणित ग्रन्थ
ग्रंथ — रचनाकार
वेदांग ज्योतिष — लगध
बौधायन शुल्बसूत्र — बौधायन
मानव शुल्बसूत्र — मानव
आपस्तम्ब शुल्बसूत्र — आपस्तम्ब
सूर्यप्रज्ञप्ति –
चन्द्रप्रज्ञप्त ि –
स्थानांग सूत्र –
भगवती सूत्र –
अनुयोगद्वार सूत्र
बख्शाली पाण्डुलिपि
छन्दशास्त्र — पिंगल
लोकविभाग — सर्वनन्दी
आर्यभटीय — आर्यभट प्रथम
आर्यभट्ट सिद्धांत — आर्यभट प्रथम
दशगीतिका — आर्यभट प्रथम
पंचसिद्धान्तिका — वाराहमिहिर
महाभास्करीय — भास्कर प्रथम
आर्यभटीय भाष्य — भास्कर प्रथम
लघुभास्करीय — भास्कर प्रथम
लघुभास्करीयविवर ण — शंकरनारायण
यवनजातक — स्फुजिध्वज
ब्राह्मस्फुटसिद ्धान्त — ब्रह्मगुप्त
करणपद्धति — पुदुमन सोम्याजिन्
करणतिलक — विजय नन्दी
गणिततिलक — श्रीपति
सिद्धान्तशेखर — श्रीपति
ध्रुवमानस — श्रीपति
महासिद्धान्त — आर्यभट द्वितीय
अज्ञात रचना — जयदेव (गणितज्ञ) , उदयदिवाकर की सुन्दरी नामक टीका में इनकी विधि का उल्लेख है।
पौलिसा सिद्धान्त –
पितामह सिद्धान्त –
रोमक सिद्धान्त –
सिद्धान्त शिरोमणि — भास्कर द्वितीय
ग्रहगणित — भास्कर द्वितीय
करणकौतूहल — भास्कर द्वितीय
बीजपल्लवम् — कृष्ण दैवज्ञ — भास्कराचार्य के’बीजगणित’की टीका
बुद्धिविलासिनी — गणेश दैवज्ञ — भास्कराचार्य के’लीलावती’की टीका
गणितसारसंग्रह — महावीराचार्य
सारसंग्रह गणितमु (तेलुगु) — पावुलूरी मल्लन (गणितसारसंग्रह का अनुवाद)
वासनाभाष्य — पृथूदक स्वामी — ब्राह्मस्फुटसिद ्धान्त का भाष्य (८६४ ई)
पाटीगणित — श्रीधराचार्य
पाटीगणितसार या त्रिशतिका — श्रीधराचार्य
गणितपञ्चविंशिका — श्रीधराचार्य
गणितसार — श्रीधराचार्य
नवशतिका — श्रीधराचार्य
क्षेत्रसमास — जयशेखर सूरि (भूगोल/ ज्यामिति विषयक जैन ग्रन्थ)
सद्रत्नमाला — शंकर वर्मन ; पहले रचित अनेकानेक गणित-ग्रन्थों का सार
सूर्य सिद्धान्त — रचनाकार अज्ञात ; वाराहमिहिर ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है।
तन्त्रसंग्रह — नीलकण्ठ सोमयाजिन्
वशिष्ठ सिद्धान्त –
वेण्वारोह — संगमग्राम के माधव
युक्तिभाषा या’गणितन्यायसंग्र ह’(मलयालम भाषा में) — ज्येष्ठदेव
गणितयुक्तिभाषा (संस्कृत में) — रचनाकार अज्ञात
युक्तिदीपिका — शंकर वारियर
लघुविवृति — शंकर वारियर
क्रियाक्रमकरी (लीलावती की टीका) — शंकर वारियर और नारायण पण्डित ने सम्मिलित रूप से रची है।
भटदीपिका — परमेश्वर (गणितज्ञ) — आर्यभटीय की टीका
कर्मदीपिका — परमेश्वर — महाभास्करीय की टीका
परमेश्वरी — परमेश्वर — लघुभास्करीय की टिका
विवरण — परमेश्वर — सूर्यसिद्धान्त और लीलावती की टीका
दिग्गणित — परमेश्वर — दृक-पद्धति का वर्णन (१४३१ में रचित)
गोलदीपिका — परमेश्वर — गोलीय ज्यामिति एवं खगोल (१४४३ में रचित)
वाक्यकरण — परमेश्वर — अनेकों खगोलीय सारणियों के परिकलन की विधियाँ दी गयी हैं।
गणितकौमुदी — नारायण पंडित
तगिकानि कान्ति — नीलकान्त
यंत्रचिंतामणि — कृपाराम
मुहर्ततत्व — कृपाराम
भारतीय ज्योतिष (मराठी में) — शंकर बालकृष्ण दीक्षित
दीर्घवृत्तलक्षण — सुधाकर द्विवेदी
गोलीय रेखागणित — सुधाकर द्विवेदी
समीकरण मीमांसा — सुधाकर द्विवेदी
चलन कलन — सुधाकर द्विवेदी
वैदिक गणित — स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ
सिद्धान्ततत्ववि वेक — कमलाकर
रेखागणित — जगन्नाथ सम्राट
सिद्धान्तसारकौस ्तुभ — जगन्नाथ सम्राट
सिद्धान्तसम्राट — जगन्नाथ सम्राट
करणकौस्तुभ — कृष्ण दैवज्ञ

Sunday, July 27, 2014

आइये जानते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त क्या है।●

इसके वैज्ञानिक लाभ क्या हैं।■
ब्रह्म मुहूर्त का ही विशेष महत्व क्यों?
रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है।
“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी”।
(ब्रह्ममुहूर्त की पुण्य का नाश करने वाली होती है।)
ब्रह्म मुहूर्त का विशेष महत्व बताने के पीछे हमारे विद्वानों की वैज्ञानिक सोच निहित थी। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायु मंडल प्रदूषण रहित होता है। इसी समय वायु मंडल में ऑक्सीजन (प्राण वायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है। शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।
ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे।
आइये जाने ब्रह्ममुहूर्त का सही वक्त व खास फायदे –
धार्मिक महत्व - व्यावहारिक रूप से यह समय सुबह सूर्योदय से पहले चार या पांच बजे के बीच माना जाता है। किंतु शास्त्रों में साफ बताया गया है कि रात के आखिरी प्रहर का तीसरा हिस्सा या चार घड़ी तड़के ही ब्रह्ममुहूर्त होता है। मान्यता है कि इस वक्त जागकर इष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है। क्योंकि इस समय ज्ञान, विवेक, शांति, ताजगी, निरोग और सुंदर शरीर, सुख और ऊर्जा के रूप में ईश्वर कृपा बरसाते हैं। भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।
पौराणिक महत्व - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।
व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।
इस तरह शौक-मौज या आलस्य के कारण देर तक सोने के बजाय इस खास वक्त का फायदा उठाकर बेहतर सेहत, सुख, शांति और नतीजों को पा सकते हैं।